सफला एकादशी अपने नाम के अनुसार भक्तों के सभी कार्य को सफल और पूर्ण करने वाली है। धर्म ग्रंथो में इस एकादशी के बारे में कहा गया है की हज़ारों वर्ष तपस्या करने से जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है वो पुण्य भक्ति पूर्ण रात्रि जागरण सहित सफला एकादशी करने से मिलता है। इस दिन मंदिर एवं तुलसी को दिप दान करने को बहुत महत्व बताया गया है।
व्रत कथा इस प्रकार है।
चम्पावती नगरी में एक महिषमत नाम का राजा रहता था उसके चार पुत्र थे। उनमे बड़ा राज पुत्र लुम्बक नाम का बड़ा पापी था। वह पापी सदा परि स्त्री और वैश्या का संग करता था। वह पुत्र सदा इन पाप कर्म में अपने पिता का धन नष्ट किया करता था। वह ब्राह्मण, वैषणव की निंदा किया करता था। जब राजा को अपने बड़े पुत्र के कुकर्म का पता चला तो उसे अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। तब वह सोचने लगा क्या करू ? कहा जाऊ? तब उसने चोरी का मार्ग अपनाया। तब वह दिन में वन में रहता और रात को पिता के राज्य में चोरी करने तथा प्रजा को मार पिट कर धन लूटता। कुछ समय बाद नगर के वासी भयभीत हो गए। वह वन में पशु-पक्षी को मारकर खाने लगा। राजा के कर्मचारी उसे पकड़ लेते पर किन्तु राजा के दर से छोड़ देते।
एक प्राचीन पीपल का वृक्ष था। नगर के वासी भगवान के समान उसकी पूजा करते थे। उसी के निचे महा पापी लुम्बक रहा करता था। वह दिन प्रतिदिन पशु , फल खा कर जीवन निर्वाह करने लगा। पौष मास कृष्ण पक्ष दशमी के दिन वह शीत के कारण निष्प्राण हो गया। अगले दिन सफला एकादशी के दिन दोपहर सूर्य के ताप से उसे होश आया। भूख से दुर्बल जब लुम्बक फल इखट्टे करने लगा तो सूर्य अस्त हो गया तब उसने सभी फल वही पीपल के जड़ में रख दिए और निवेदन करते हुए कहा ” इन फलों से लष्मी-पति विष्णु संतुष्ट हो”। उसके निष्काम और प्रार्थना से भगवान को बड़ी प्रस्संनता हुई। और भगवान ने पलभर में ही उसके सभी पाप नष्ट कर दिए। और उसी समय आकाशवाणी हुई ” हे लुम्बक तुम्हारे व्रत से प्रसन्न होकर श्री हरी ने तुम्हारे सभी पाप नष्ट कर दिए है तुम अब अपने राज्य जाओ अपने पिता को आराम दो और उनका राज्य सभालों।
ये सुनकर लुम्बक भगवान की जय बोलकर अपने राज्य वापिस चला गया। और धर्म आचरण करके राजपाठ सँभालने लगा। उसका विवाह योग्य कन्या से हुआ, अच्छी संतान प्राप्त हुई और अंत में मोक्ष की प्राप्ति हुई।
सफला एकादशी की जय।